Saturday, January 5, 2013

(First published today, this blog post was written during the December 2012 India Gate protests. Dubbed superficial, incoherent and worse by many, these protests will forever remain for me a heartwarming display of solidarity with victims of extreme violence and a watershed moment in the history of modern India's struggle for human rights.)

प्रिय टीवी एंकर,

आपने आपके साथियों ने समाज को, उसमें पनप रहे हिंसा को और उसके खिलाफ बुलंद होती आवाज़ को जिस जोश और जज़्बे के साथ पूरी दुनिया को दिखाया है उसके लिए आप सबको मेरा शत शत नमन!
लेकिन आपकी एक बात मुझे गलत नहीं तो पूर्णतः सही भी नहीं लगी।

आपने कहा कि कुछ ग़लत इरादे वाले लोग विरोध प्रदर्शन में घुस आये और उसे कलंकित कर दिया। कैसे? सीटियाँ बजाकर और तोड़-फ़ोड़ कर के।

सीटियाँ प्रदर्शन की वजह से नहीं बजी। सीटियाँ बजी क्योंकि कुछ लोग लड़कियों को देखकर हमेशा सीटी बजाते हैं। समाज ने उन्हें सिखाया है कि लड़कियों को देखो तो सीटी ज़रूर बजाओ। छेड़ -छाड़, गाली-गलौज तुम्हारा फ़र्ज़ है। चुलबुल जी को देखिए, वो भी आजकल यही सिखा रहे हैं।

अगर इंडिया गेट पर जमा हुई लड़कियों को अभद्र बातें सुनने को मिली, तो इसका दोष प्रदर्शन और प्रदर्शनकारियों पर मत थोपिये। इंडिया गेट पर लड़कियां प्रदर्शन नहीं, पिकनिक ही करने जाती तो भी अभद्र बातें सुनती। पूजा के पंडाल में, शादियों में और बाज़ार में भी घुस आते हैं बदमाश। फिर क्या पूजा के पंडाल नहीं सजने चाहिए? क्या शादियों को अराजकता फैलने का कारण बताया जाना चाहिए? फिर तो आप लोगों से ये भी कह दीजिये कि जनाब, बाज़ार से सब्जियां लेने जाएँ तो अपनी श्रीमतीजी को न ले जाएँ, उपद्रवी तत्त्वों को बढ़ावा मिलता है!

हम सब हमेशा उस अनपढ़, जाहिल समाज पर ये आरोप लगाते आये हैं कि वो बेझिझक हिंसा झेलने वालों को हिंसा का कारण ठहरा देता है। अब आप भी उसी समाज की तरह शिकारी को छोड़, शिकार पर निशाना मत साधिये।

वहाँ एकत्रित लड़कियों को और घर पर उनके माता-पिता को बेकार ही डराइये नहीं। बल्कि उन्हें और उनके पुरुष साथियों को हौसला दीजिये। कहिये कि मित्रों, माफ़ करना कि हर रोज़ की तरह आज भी तुम पर कुछ जाहिल कटाक्ष करेंगे। कुछ लोग तुम्हारा मज़ाक उड़ायेंगे। तुम बच्चे हो, निहत्थे हो और ज़्यादातर किसी बड़े राजनैतिक पार्टी के युवा परिषद् का हिस्सा भी नहीं हो। इसलिए तुम्हें तो कुछ लोग ज़रूर परेशान करेंगे। लेकिन तुम घबराना मत। अब हमारा कैमरा और हमारी रिपोर्टर तुम्हारे साथ है- दस-बीस मूर्खों के चेहरे को टी वी पर शर्मसार करने का ज़िम्मा तो हम ले ही लेंगे!

एक और बात, एंकर बाबू। महिलाएं हर रोज़ बस, ट्रेन मेट्रो में चढ़ती हैं। हर रोज़ उन्हें कोई परेशान करता है। कोई घूरता रहता है, कोई दुपट्टा खींचता है तो कोई छूने का प्रयास करता है। अक्सर कामयाब हो जाता है। वो गुस्सा होती हैं, कभी चीखती है तो कभी चुप रह जाती हैं। पर वो ऐसी मोम की गुडिया भी नहीं हैं कि कोई छीटा कशी करे और वो अपने ही आसुओं के सैलाब में पिघल जाएँ। हर रोज़ हो रहे इस पागलपन के बावजूद हर बार अपने आप को समेटती हैं और फिर जीवन के संघर्ष में जुट जाती हैं।

प्रदर्शन करते वक़्त लड़कियों को जो परेशानी झेलनी पड़ रही है उससे वो घबरा भले ही गयी हो, लेकिन वो हर रोज़ की तरह हौसला जुटा कर फिर आगे बढेंगी। फर्क सिर्फ दो होंगे। एक तो ये कि हर रोज़ की तरह उनकी झुंझलाहट सिर्फ उन तक ही सीमित नहीं रहेगी बल्कि पूरे देश में गूंजेगी। और दूसरा ये कि हर रोज़ की तरह विरोध का हिस्सा बनने की वजह से जो गगुंडागर्दी उन्हें झेलनी पड़ी, वो समाज में एक बड़े बदलाव को लाने के प्रयास में होगी।

विरोध प्रदर्शन कलंकित नहीं हुआ, एंकर साहब।

एक बार फिर, धन्यवाद।

- एक आम भारतीय महिला